मंगलवार, 6 सितंबर 2011

तू है तो मानता हूँ खुदा, खुदा क्यूँ है..

तू है तो मानता हूँ खुदा, खुदा क्यूँ है..

किन शब्दों में बयां करूँ तुझे
किन पन्नों पे तेरी कीमती यादें रखूं 
किस आवाज में तेरी हँसी पिरोउं 
किन एहसासों में मुलाकातें लिखूं..

इक दुविधा में हूँ 
की तेरे चेहरे की चमक में सूरज फीका क्यूँ है
तेरी मस्ती में उलझा हवा का झोंका क्यूँ है
तुझे देखने ये चाँद तारे आये हैं, 
नहीं तो बादलों से देखो वो परेशां क्यूँ हैं..

हर शायर परेशां है तेरे हुस्न से 
एक तू है न जाने इस जहाँ में उतरा क्यूँ है
नज़रें उठती नहीं हैं तेरी,
मानता हूँ कई जिंदगी बचती है
पर हम तो वो कातिलाना जिंदगी ही चाहते है
नजरें उठा अपनी, कुछ और सोचता क्यूँ हैं..

तू तो खुदा की काबिलियत का आइना है..
यूँ तो खुदा को मानने वालों से मैं नहीं
पर तू है तो मानता हूँ खुदा, खुदा क्यूँ है..

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