रविवार, 19 जुलाई 2015

वाकई ये गाँव काफी तरक्की कर गया है....


ऊँची इमारतों के साये में पुरानी कुछ झोपड़ियां
बूढ़े मकानों की अनसुनी सिसकियाँ
अपने ज़माने के पक्के घरों में शिकन 
सुनसान मंदिर के चबूतरे पे तास खेलते लोग 
फुटबॉल के मैदान में भरी प्लास्टिक की थैलियां 
खेतों के सीने को चीरकर जाती पानी भरी सड़कें 
खेतों को बंजर छोड़ ऑफिस जाते लोग 
सूखकर खोयी वो चंचल उसरी नदी
नालों में कागज के नाँव तैराते बच्चे 
प्लास्टिक में फँसकर डूबती वो नावें  
अपनी धुन में बहता हुआ गन्दा नाला 
और नाकों पर रुमाल लगाते लोग 
झाड़ियों के कब्जे में पल रहा 
वो पास का हरा भरा जंगल
मोटरगाड़ी के धुएँ में लिपटा मोहल्ला
इंजन के शोर में खोयी कुदरत की गुनगुनाहट 
आलस की जंजीरों में बंधी सुबह 
कुल्हड़ को चिढ़ाता हुआ प्लास्टिक गिलास में चाय  
चेहरे पे इंसानियत का मुखौटा लगाकर  
हर चुस्की पर नैतिकता की बातें करते लोग 
सुबह के शुरुआत में सिगरेट के कश 
रात के डेजर्ट में ४ बोतल शराब 
जीन्स और सूट के पीछे छुपे खुदगर्ज 
और शोहरत से खरीदी हुई इज्जत . . 

वाकई ये गाँव काफी तरक्की कर गया है.... 
अपनी मासूमियत खोकर … 


सोमवार, 26 जनवरी 2015

जरा ठहरो, पर्दा शायद गिरेगा कभी..



दबे पाँव यूँ बिन बताये दिन निकल गए,
कुछ ख्वाब खिले और कुछ टूटे, पर 
ख्वाबों की हर महफ़िल में रही वो ख़ामोशी,
जो तेरी हया ने जुदाई में छोड़ी थी... 

दबे पाँव तू तो निकल गयी ,
उस रात बाद चाँद फिर हँसा नहीं ,
कच्ची मिटटी के कुछ नए ख्वाब बनाये हमने 
पर वो ख़ामोशी अब भी है कहीं.. 

बेजुबाँ ख़ामोशी अब भी बताती है, 
की बिना आहट के कैसे क़त्ल हुआ था ख़ाबों का 
जो खून का कतरा बहा नहीं, 
माजरा क्या है किसी ने पूछा नहीं.. 

हँसी की गूंजों में निकलता है
जब कभी ख़ाबों का काफिला, 
एक खाब ख़ामोशी में सिसकता है कहीं 
पलकों के पीछे छुपा के आंसू 
दबी आवाज़ में बोलता है अब भी -
"शायद ये कोई नाटक हो.… 
जरा ठहरो, पर्दा शायद गिरेगा कभी …"