सोमवार, 26 जनवरी 2015

जरा ठहरो, पर्दा शायद गिरेगा कभी..



दबे पाँव यूँ बिन बताये दिन निकल गए,
कुछ ख्वाब खिले और कुछ टूटे, पर 
ख्वाबों की हर महफ़िल में रही वो ख़ामोशी,
जो तेरी हया ने जुदाई में छोड़ी थी... 

दबे पाँव तू तो निकल गयी ,
उस रात बाद चाँद फिर हँसा नहीं ,
कच्ची मिटटी के कुछ नए ख्वाब बनाये हमने 
पर वो ख़ामोशी अब भी है कहीं.. 

बेजुबाँ ख़ामोशी अब भी बताती है, 
की बिना आहट के कैसे क़त्ल हुआ था ख़ाबों का 
जो खून का कतरा बहा नहीं, 
माजरा क्या है किसी ने पूछा नहीं.. 

हँसी की गूंजों में निकलता है
जब कभी ख़ाबों का काफिला, 
एक खाब ख़ामोशी में सिसकता है कहीं 
पलकों के पीछे छुपा के आंसू 
दबी आवाज़ में बोलता है अब भी -
"शायद ये कोई नाटक हो.… 
जरा ठहरो, पर्दा शायद गिरेगा कभी …"