शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

मेरे अश्क...

मेरे अश्क...

अश्कों की धारा कहती है,
तू अलग कर मुझको खुद से,
इसमें मेरी क्या गलती है ,
जो दूर गयी है वो तुझसे।

तेरे नैनों ने जो विदा किया
तेरे गालों पे पनाह की तलब होगी,
इस उलझी जलती दुनिया में
मैं कहाँ चैन सुख पाउँगा,
मैं इन लड़ते गिरते पवनों के संग
उड़कर फिर से खो जाऊंगा।
दुनिया में जो मुझको देखेगा
तेरी ही हँसी उड़ाएगा,
पुराने अश्कों की बात नहीं,
कोई इतनी करीबी से ना देखेगा,
ना सूखे अश्कों के निशानों पर जायेगा।

कभी दर्द और बढ आया था,
तब मैंने कुछ लहू बहाया था।

अश्कों ने फिर कहा मुझसे
अब मुझको विदा करो खुद से।
मैं और कहीं भी जाऊंगा
पर मुझमे वो ताकत कहाँ
जो ये दर्द महफूज रख पाउँगा।

तेरे दर्द में घुलकर अब
मैं भी लहू बन जाऊंगा..

ये लहू बहाना ठीक नहीं
तू मुझको क्यूँ तडपाता है
तेरी दुनिया को सोचूँ तो
मुझको भी रोना आता है..

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