न जाने कितने निगहबाँ थे वहीँ ,
बाहर निकलने के थे रास्ते कई,
दाखिल होने का कोई रास्ता नहीं,
जो बात थी दबी ,दबकर ही रह गयी।
फिर एक दिन कहीं से उठा इक सवाल ,
जवाबों को ढूंढने की कवायद शुरू हुई ,
मकाँ की तरफ वो देखते थे तो सही ,
पर दाखिल होने का कोई रास्ता नहीं।
जवाबों को ढूंढने में उठ गए कई सवाल ,
सवालों ने फिर एक हंगामा खड़ा किया ,
वो दाखिले का रास्ता दिखा था मगर ,
एक मासूम आग ने सबको डरा दिया ,
वो आग बुझाने को दमकल बुलाया था ,
मालूम पड़ा इक आग ने उसको जला दिया,
लपटें वो आग की धू धू कर उठी,
मासूम आग ने सब कुछ मिटा दिया,
जो बात थी दबी दबकर ही रह गयी।
मेला बड़ा लगा , तफ्तीश भी चली ,
निगहबानों के मुखौटों के कई रंग भी दिखे,
माहौल तो ,उस आग से, ज्यादा गरम हुआ ,
पर मासूम आग को मासूम ही कहा ,
तफ्तीश भी जली उस आग की तरह ,
धू धू कर जली जितना वो जल सकी,
मेला खड़ा किया , हंगामा सा हुआ ,
तफ्तीश भी बुझी उस आग की तरह ,
जो बात थी दबी , दबकर ही रह गयी।
सपने कई जले सवालों की आग में ,
जवाबो को तलाश है ,किसी और मकाँ की ,
जो सवालों से न जले , फिर मासूम आग में।
Aur likha kriye!
जवाब देंहटाएंतफ्तीश भी जली उस आग की तरह,
जवाब देंहटाएंधू धू कर जली जितना वो जल सकी,
मेला खड़ा किया, हंगामा सा हुआ,
तफ्तीश भी बुझी उस आग की तरह,
जो बात थी दबी, दबकर ही रह गयी।
बहुत अच्छी कविता। आज का यथार्थ।
-- सच्चाई को सामने लाने की कसमसाहट।