रविवार, 10 अक्तूबर 2010

खौफ है कि दिल के दर पे दस्तक न हो…

खौफ है कि दिल के दर पे दस्तक न हो…

दिल के दर पे जो दस्तक गयी, हमनें सहमी साँसों से कड़ी और कस दी,

खौफ था कहीं फिर से वो शरारत न हो, खौफ था कि फिर से मुहब्बत न हो.


दर पे दस्तक बनी रही, दर ओ दीवार अब सहमा था

कहीं वो ख़ुशी के प्याले में गम की आफत न हो, की कहीं फिर से वो अनजानी सी हालत न हो,

दुआओं का दौर कहीं तेज हो रहा था,

कहीं फैसले के लिए फिर तेरी अदालत न हो, कहीं फिर से मेरे जिंदगी में आकिबत हो।


कहीं कोई प्यारा न दिखे, कभी कोई मेरी अमानत न हो

यकीं है पर फिर भी खौफ है, कोई तुम सा खुबसूरत न हो।


मुसाफिरों का न पता कैसा काफिला है, कहीं फिर से मेरे खिलाफ बगावत न हो

कोई प्यार बाँटनें भी आया हो तो कह दूँ, चाहता हूँ दिल में प्यार की बरक्कत न हो।


बहुत जी लिया गम ए जिंदगी में, की फिर से उस गम की हुकूमत न हो

कहीं फिर से उसकी फैलाई दहसत न हो, फिर से उसके जुल्मों की मेरे घर कोई दावत न हो।


हर दस्तक के साथ यही दुआ है, मुझे कहीं छुपा ले जहाँ से कभी जमानत न हो,

मैं तो कड़ी खोल दूँ मगर, खौफ है कहीं इसकी भी फितरत फुरक़त न हो।


दर पे फिर से कोई हरकत न हो, हम तनहा ही खुश है अब लौट जाओ,

खौफ की कहीं मुझे खुद से नफरत न, कहीं खुद से रूठने कि नौबत न हो।


तेरी इनायत होगी खुदा, कोई दस्तक की जरूरत नहीं,

कभी पास आये और फिर, कहीं इसे भी मेरे लिए फुर्सत न हो।

तोड़ न दे मुझे इतना,

की कहीं टूटने पे फिर से कोई हैरत न हो, की फिर से उठने की हिम्मत न हो।


मुझे फिर से कोई खेल नहीं खेलना, खुदा मुझसे खेलने की किसी को इजाजत न हो

हर गम में जी लिया मैं, अब कुछ कर, की किसी को दर पे आने कि जुररत न हो।


किसी के साथ मुझे सैर पे भी नहीं जाना, खौफ की कहीं लौटने के लिए बची मोहलत न हो

जिस कोने में मैं सहमा था कहीं, उस कोने में पलती मुसीबत न हो,

कहीं राहत के लिए किसी की रहमत न हो, वो झूठी शान ओ सौकत न हो।


हर रोज़नों को बंद किया मैंने, की तेरी यादों के संग कोई अन्दर न आये

जिनसे मैं भागता हूँ, कहीं वो फिर हकीकत न हो।


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