उन उदासी भरी शामों की हकीकत देखो
मजहब क्या बने है लहू बहाने के लिए ,
कि गर्दन के काटने से गर मामला सुलझे
तो तैयार रहे हम भी सुलझाने के लिए ,
पर जो एक मौत कई जिंदगी को मुर्दा कर दे
क्यों तलवार उठायें उसे बुलाने के लिए ,
नादानों के आँखों से टपकते आंसू
क्या काफी नहीं इंसां के समझ आने के लिए,
वो चीेखों से, दर्द और बेबसी से झुलसती शामें
क्या कोई शाम है ये जश्न मानाने के लिए ,
जो औरों के खून से लथपथ मिलेगा आँगन
बता खुश होगा खुदा ऐसे ज़माने के लिए,
मुहब्बत की दुनिया बनाकर रखो
काफी है खुदा की इबादत पे चढाने के लिए,
कोई हिन्दू , मुस्लिम या ईसाई दुश्मन नहीं है
आज हाथ बढ़ाओ हाथ मिलाने के लिए..