शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

ये दर्द कोई खोने वाला ही जाने..


ये दर्द कोई खोने वाला ही जाने.. 

फिर से वही सुबह
कुछ अलग चहल पहल के संग
हवाओं के बहाव में रुकावट
कुछ आँखों में नमी 
पंछियों के बिना सूना आसमाँ
खोयी थी कहीं जमीं
एक शांत व्यक्तित्व 
लकड़ी के छोटे कोठरे में 
निश्चिंत सोया था
बिना किसी हरकत के
बिना कोई आवाज़ किये
किसी और जहाँ में खोया था. 

लोग कहते हैं वो मितभासी था
सबका भला करता फिरता
सच्चा सन्यासी था
खुदा से न जाने क्या दुआ की
कि मौत आ गयी
अच्छे लोगों का जीवन 
आजकल ऐसा ही था..

न जाने इतनी शांति में भी
एक अलग सी हलचल थी
हवाओं को जैसे कुछ कहना था
बादलों में अलग सी रंगत थी
तभी नज़र पड़ी मेरी
उसके इकलौते बेटे पे
जो गुमसुम था, उदास था
आंखें भर गयी मेरी अचानक 
मेरा अपनी भावनाओं पे वश न रहा
ऐसा लगा जैसे
उसने मुझसे अपना दर्द कहा
गाडिओं के चक्कों की कर्कश ध्वनि से अंजान
पादरी के धीमे आवाजों से अंजान
वो एक कोने में खड़ा था
सहमा था..

अंतिम क्रिया ख़त्म हुई
फिर से कोलाहल
हवाओं में फिर से हलचल थी
पर अब भी एक कोना
उन शांत हवाओं के साथ जी रहा था
कोई गम के आंसू अब भी पी रहा था
अजब सी निराशा थी
हवाएं भी जैसे वहां गम में थी
वो अशांति भरी शांति का दर्द
कोई खोने वाला ही जाने..

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